लेखक : राहुल कुमार रावत, अलीगंज (जमुई)
पवन के पिताजी की चिता धू- धू चलने लगी। जितनी तेज चिता की लपटें उठ रही थी उससे भी कहीं अधिक ऊंची पश्चाताप की आग की लपटें पवन के सीने मे उठ रही थी। पर वे स्थिर भाव से पिताजी की चिता जलते हुए देखा रहा पर उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। पवन के पिताजी की चिता शांत होने लगी पर उनके सीने में जलता आग जैसे कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था और हो भी कैसे खैर...।
वे भारी कदमों से बस पकड़ कर "वृद्ध आश्रम पटना" से घर लौट आया। एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था घर मे। क्या पवन खुद को अपराधी महसूस कर रहा था।?नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यहां से तो पवन के पिताजी की अर्थी भी नहीं उठी थी
उसके पिताजी के निधन की बात जानकर मोहल्ले वाले और रिश्तेदार ने भी उससे ढांढस नहीं दिखाई। उचित भी था उसके जैसा बेअकल सॉरी नालायक बेटा किसी की सहानुभूति पाने का अधिकार खो चुका था। धिक्कार है पवन जैसे निर्दयी बेटे पर जो सारी सुख सुविधा होने के बावजूद भी अपने पिता को वृद्ध आश्रम (old age home) छोड़ आया। कयरो की तरह पीठ दिखाकर। हाय रे कलयुगी राक्षस। तुझे जरा भी शर्म नहीं आई। जिस पिता ने भरी जवानी में पढ़ा लिखाकर एक काबिल इंसान बनाया और अब बूढ़े व बीमार होने तथा बार-बार पैसे खर्च करने के डर से वृद्ध आश्रम छोड़ा आया।
उस सुबह जब वृद्ध आश्रम से एक सज्जन ने उसके पिता के निधन की सूचना दी तो उन्हें समझ ही नहीं आया कि पापा के जाने का शोक मनाए या उनके इस नर्क से पीछा छूटने की खुशी?
शमशान घाट से वापस आकर सीधा "पिताजी के कमरे" में घुस गया आप सोच रहे होंगे कि मैंने उस कमरे को पिताजी का कमरा क्यों कहा इसलिए, कि आज भी यह कैमरा पिताजी के नाम से जाना जाता है। यह और बात है कि पवन के पिताजी के जाने के बाद उनके सामान को एक तरफ कर दिया गया हो।वे दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। पवन ने बारी-बारी से सब सामानों को गले से लगाकर अपने मृत पिता को पुकारने लगा। कैसा पल आ गया था जब पिताजी साथ थे तो उससे दूर रहने का निर्णय और आज जब वे नहीं है तो उन्हें बोलते देखने की एक अक़बकाहट।
वह अपने जन्म से लेकर पापा की मृत्यु तक सभी पन्ने को पलटने लगा।मेरे पिता ने ना किसी से कर्ज मांगे। ना
मेरे आबरू पर आंच आने दी ना जमीन का एक टुकड़ा बिकने दिया... मेरे पापा ने अपना फर्ज निभाया और एक मैं हूं जो बीमारी का बहाना करके वृद्ध आश्रम छोड़ आया, पिता यानि वह इंसान जो चाहता हो कि हमारा बेटा मुझसे भी अधिक तरक्की करे और एक बाप- बेटे का रिश्ता जिसे आज भी शब्दों मे पिरोया नहीं जा सका। पर हाय रे कपूत। तूने तो उसी रिश्ते पर दाग लगा दिया। और वह भी अपने पत्नी के कहने पर। जिस पिता ने इस समाज को अनदेखा करके तुम्हारे पसंद की लड़की से विवाह करने को भी राजी हो गया। और पवन कितने कायरता और धोखे से अपने पिता की आंखों में लेंस लगाने के लिए अस्पताल में भर्ती करने का बहाना करके यहां छोड़ गया था।
करीब 8 महीने बाद सुबह - सुबह किसी अनजान नंबर से कॉल आया जो पवन के पिताजी की मृत्यु की खबर थी पवन के मन में आज अजीब सी घबराहट थी और वह पहुंच गया वृद्ध आश्रम। वे अपने पिताजी की ओर देखा। पापा पलंग पर किसी अबोध बालक की भांति अपने होठों पर अजीब सी उदासी लिए निष्प्राण पड़े थे वे अपने पिताजी के गालों को छुआ। पर अफसोस कि उनमें कोई हलचल नहीं हुआ। अब होना क्या था पवन वृद्ध आश्रम वालो के साथ अपने पिताजी कि अंतिम संस्कार का सामान लेकर चला आया।
जब उनके पिताजी को शमशान घाट में रखा जाता है पवन पिता के चरण को छू लेता है।और वहां खड़े वृद्ध आश्रम के प्रबंधक तथा अन्य कर्मचारियों से कहते है कि मैं हर माह अपने पिता की याद में, इस संस्था को दस हजार रुपया देना चाहता हूं।
मैं पिछले तीन माह से देख रहा हूं कि वह अंतिम तारीख को जाकर पैसा दे आते हैं। पूछने पर पवन जी ने बताया कि वहां जाकर ऐसा लगता है कि पापा आज भी उसी पलंग पर बैठे उदास मन से बोल रहे हैं, "बेटा तूने आने में देर कर दी"। मैं जितनी देर वहां रहता हूं मैं अपने पापा की छवि को उन लोगों में देख पाता हूं।।
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