लखनऊ/उत्तर प्रदेश, 30 दिसंबर 2023, शनिवार। उत्तर प्रदेश शायद देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां 2024 के लोकसभा चुनाव में धर्म और राजनीति का मिला जुला-असर लोगों के सिर चढ़कर बोलेगा। उत्तर प्रदेश नए साल में राम मंदिर के भव्य उद्घाटन के साथ प्रवेश करेगा। यह लोकसभा चुनाव के लिए बड़े पैमाने पर शुरू होने वाले चुनावी अभियान से पहले होगा, जिसका राजनीति पर प्रभाव पड़ना तय है।
राम मंदिर भी बीजेपी का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा होगा, जो विपक्ष को जवाबी हमला करने का मौका नहीं देगा। 2024 का लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश के लिए एक मील का पत्थर है। प्रदेश लोकसभा में अधिकतम 80 सांसद भेजता है और केंद्र में सरकार बनाने में मदद करता है।
जैसे-जैसे चुनावी सरगर्मियां तेज होंगी, मंदिर और लोकसभा चुनाव इस हद तक आपस में जुड़ जाएंगे कि एक-दूसरे को प्रभावित करेंगे। दोनों घटनाक्रम राज्य के लिए निर्णायक क्षण होंगी। इसके अलावा, काशी-ज्ञानवापी और मथुरा-कृष्ण जन्मभूमि मुद्दे भी अदालतों में पहुंच गए हैं और 2024 में होने वाली घटनाएं इन दो तीर्थस्थलों के इर्द-गिर्द घूमेंगी।
इसलिए, इस वर्ष हिंदुत्व का उभार पहले कभी नहीं देखा जाएगा और भाजपा को अयोध्या-काशी-मथुरा में मंदिरों को मुगलों से मुक्त कराने का अपना वादा पूरा होता दिखेगा। इससे सत्तारूढ़ भाजपा को आम चुनावों में बड़ा फायदा होगा। यदि उनका अभियान योजना के अनुसार चलता है, तो यह जातिवाद पर भी हावी हो सकता है, जिससे फिर से भाजपा को फायदा होगा।
वर्ष 2024 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी एक अद्वितीय हिंदू नेता के रूप में उभरेंगे। पिछले डेढ़ साल से, योगी आदित्यनाथ अपना अधिकांश समय 'नई अयोध्या' के विकास की योजना बनाने में बिता रहे हैं।
वह यह सुनिश्चित करने के लिए लगभग हर हफ्ते अयोध्या का दौरा कर रहे हैं कि सभी परियोजनाएं निर्धारित समय के भीतर पूरी हो जाएं और गुणवत्ता मानकों के अनुरूप हों। राम मंदिर का उद्घाटन और आम चुनाव के बाद योगी का रुतबा बढ़ने से बीजेपी के भीतर भी सत्ता समीकरण बदलने की उम्मीद है।
इस बीच, उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में ज्यादा आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि विपक्ष बुरी तरह बंटा हुआ है और इंडिया गठबंधन के घटकों के बीच मतभेद अभी तक दूर नहीं हुए हैं। आम तौर पर समाजवादी पार्टी (सपा) और खासकर अखिलेश यादव का भविष्य लोकसभा चुनाव में तय होगा। 2017 में जबसे अखिलेश ने पार्टी की कमान संभाली है, तब से सपा यूपी की राजनीति में अग्रणी बनकर उभरने में विफल रही है।
यदि अखिलेश और उनकी पार्टी आम चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने में विफल रहती है, तो उन्हें सपा में विद्रोह का सामना करना पड़ सकता है। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं से निपटने में अखिलेश की असमर्थता को लेकर सपा के भीतर पहले से ही असंतोष पनप रहा है, जिनके हिंदू धर्म पर हमलों से पार्टी में ऊंची जाति के हिंदू पहले से ही नाराज हैं।
मो. आजम खान के जेल में बंद होने के कारण सक्रिय राजनीति से अनुपस्थिति ने सपा में मुसलमानों को नेतृत्वहीन बना दिया है। अखिलेश ने भी समुदाय की समस्याओं में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि अगर स्थिति नहीं बदली तो मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस की ओर जा सकता है। जिसे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। दूसरी ओर, बसपा आम चुनाव पर अपने रुख को लेकर लगातार असमंजस की स्थिति में बनी हुई है।
मायावती की पार्टी गठबंधन में शामिल होने को लेकर अनिश्चित है। पार्टी के कार्यकर्ता भी असमंजस की स्थिति में हैं। पार्टी, जो हाल के चुनावों में पहले ही सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुकी है, ने अभी तक आम चुनावों के लिए कोई रणनीति नहीं बनाई है।
The mixed effect of religion and politics will speak to the people in the Lok Sabha elections in UP.