मोतिहारी/बिहार, 9 मई 2025 — जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी के चलते थम गई थी, लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर संकट छा गया था और प्रवासी मजदूर अपने शहरों से पलायन करने को मजबूर हो गए थे, तब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नई सोच का बीज बोया — ‘लोकल फॉर वोकल’। यह न केवल एक नारा था, बल्कि आत्मनिर्भर भारत की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम था, जिसने कई युवाओं को अपने गांव में रहकर कुछ नया करने की प्रेरणा दी।
बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के एक छोटे से गांव लखौरा के निवासी मोहम्मद नूरैज इस पहल का जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने कोरोना काल की चुनौतियों को अवसर में बदला और आज वे अपने गांव में एक सफल बैग फैक्ट्री के मालिक हैं, जिसमें करीब 100 से अधिक लोग कार्यरत हैं। यह कारखाना न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति दे रहा है, बल्कि उन लोगों की जिंदगी भी संवार रहा है, जो कभी शहरों में मजदूरी के लिए भटकते थे।
★ नूरैज की यात्रा संघर्षों से शुरू होकर सफलता की मिसाल बनी
कोरोना महामारी से पहले मोहम्मद नूरैज महाराष्ट्र में बैग निर्माण का व्यवसाय करते थे। लेकिन जैसे ही लॉकडाउन लागू हुआ, फैक्ट्री बंद हो गई और उन्हें भी लाखों अन्य प्रवासियों की तरह अपने गांव लौटना पड़ा। उस वक्त अनिश्चितता, आर्थिक तंगी और भय का वातावरण था। लेकिन जहां अधिकांश लोगों ने हालात के आगे घुटने टेक दिए, वहीं नूरैज ने उम्मीद का दामन थामा।
प्रधानमंत्री की 'लोकल फॉर वोकल' की सोच से प्रभावित होकर उन्होंने यह निर्णय लिया कि वह गांव छोड़कर फिर से बाहर नहीं जाएंगे, बल्कि गांव में ही एक नया अध्याय शुरू करेंगे। इस सोच से प्रेरित होकर उन्होंने अपने ही गांव में एक बैग बनाने की फैक्ट्री शुरू की। शुरुआत में यह विचार साहसिक था, लेकिन नूरैज के आत्मविश्वास और मेहनत ने इसे एक व्यावसायिक सफलता में बदल दिया।
★ स्थानीय लोगों के लिए बन गई आशा की किरण
आज उनकी फैक्ट्री में काम करने वाले लगभग सभी लोग स्थानीय हैं — वे लोग जो कभी दिल्ली, मुंबई, चेन्नई जैसे महानगरों में नौकरी की तलाश में जाते थे। अब उन्हें न तो शहर की भीड़भाड़ में संघर्ष करना पड़ता है और न ही अपनों से दूर रहना पड़ता है। वे गांव में रहकर ही सम्मानजनक जीवन यापन कर रहे हैं। इन लोगों के चेहरों पर संतोष की मुस्कान और परिवारों में लौटी रौनक नूरैज के प्रयासों की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
"हमने हार नहीं मानी, कुछ अलग करने का फैसला लिया," नूरैज कहते हैं। “प्रधानमंत्री की योजना ने मुझे हौसला दिया कि मैं गांव में रहकर भी कुछ बड़ा कर सकता हूं। अब हमारे साथ लगभग 110 लोग काम कर रहे हैं। उन्हें नियमित आमदनी मिल रही है, और वे अपने परिवार के साथ रह पा रहे हैं — यह संतोष मुझे शब्दों में बयान नहीं कर सकता।”
★ फैक्ट्री बन गई है ग्रामीण उद्यमिता का प्रतीक
नूरैज की फैक्ट्री में तैयार होने वाले बैग अब केवल स्थानीय बाजारों में ही नहीं, बल्कि बिहार के अन्य जिलों और यहां तक कि राज्य के बाहर भी भेजे जा रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण उत्पादों और समयबद्ध आपूर्ति ने इस ग्रामीण यूनिट की पहचान को सुदृढ़ किया है। इससे गांव में आर्थिक गतिविधियाँ तेज़ हुई हैं — सिलाई मशीनें चलती हैं, माल पैक होता है, और युवाओं को प्रशिक्षण मिलता है।
कर्मचारी मोहम्मद जीशान कहते हैं, “मैं पहले मुंबई में मजदूरी करता था। लेकिन लॉकडाउन के बाद वापस गांव लौटना पड़ा। तब लगा था कि सब कुछ खत्म हो गया। लेकिन नूरैज भाई की फैक्ट्री में काम मिल गया। अब मैं अपने परिवार के साथ हूं, नियमित आमदनी हो रही है, और मन को शांति है।”
★ गांव से निकला संदेश : आत्मनिर्भरता ही भविष्य का रास्ता है
लखौरा गांव अब केवल एक गांव नहीं रहा — यह अब प्रेरणा का केन्द्र बन चुका है। यहां के युवा नूरैज से प्रेरणा लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में कुछ नया शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं। महिलाओं को भी फैक्ट्री में जोड़ने की योजना है, ताकि गांव में महिला सशक्तिकरण को भी बढ़ावा दिया जा सके।
यह कहानी न केवल ग्रामीण भारत की तस्वीर को नया आयाम देती है, बल्कि यह भी साबित करती है कि सही दिशा, सरकारी योजनाओं का सहयोग और व्यक्तिगत दृढ़ निश्चय से कोई भी व्यक्ति परिस्थितियों को मात दे सकता है। मोहम्मद नूरैज का यह प्रयास एक अलख है, जो न केवल गांव के घर-घर तक रौशनी फैला रहा है, बल्कि 'आत्मनिर्भर भारत' की कल्पना को यथार्थ में बदल रहा है।
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