पटना/बिहार। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव बिहार के सीएम और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार के स्वागत के लिए अपना दरवाजा खोल कर बैठे हुए हैं। नए साल के पहले ही दिन लालू ने यह आफर नीतीश कुमार को दिया। हालांकि उन्होंने नीतीश को सलाह भी दी क उन्हें भी अपना दरवाजा खुला रखना चाहिए. इससे आरजेडी में कहीं उत्साह तो कहीं कोफ्त की स्थिति पैदा हो गई। लालू के बेटे और अब तक इंडिया ब्लाक के सीएम फेस के रूप में प्रचारित तेजस्वी यादव ने लालू के आफर को खारिज कर दिया तो मीसा भारती दो दोस्तों के बीच का हवाला दे रही हैं। आरजेडी (RJD) के वर्कर इससे दुविधा में पड़ गए हैं। पर, सच्चाई यह है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को कभी किसी के दरवाजे पर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. वर्ष 2005 से अब तक आरजेडी और भाजपा के लोगों को ही उनके दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ी है. विधानसभा में 43 विधायकों की पार्टी का नेता होने के बावजूद कभी आरजेडी तो कभी भाजपा (BJP) को उन्हें मजबूरन मुख्यमंत्री बनाना-मानना पड़ा।
बिहार में 15 साल तक राज करने वाले आरजेडी को नीतीश कुमार ने 2010 आते-आते 22 विधायकों वाली पार्टी बनने पर मजबूर कर दिया था। यह नीतीश की ही कृपा रही कि 2013 में भाजपा का साथ छोड़ने के बाद उन्होंने 2015 में आरजेडी को अपने साथ जोड़ा। इससे आरजेडी को पुनर्जीवन मिला और उसके 80 विधायक हो गए। लालू को नीतीश की ताकत का अंदाजा था, इसलिए उन्होंने आरजेडी से कम 71 विधायकों के बावजूद जेडीयू नेता के तौर पहर नीतीश को सीएम बना दिया। इसका फायदा यह हुआ कि लालू के दोनों बेटों को पहली बार सत्ता सुख भोगने का मौका मिल गया। यह मौका दूसरी बार भी दोनों बेटों को नीतीश की वजह से ही मिला। दोनों बेटे, कम समय के लिए ही सही, मंत्री-उपमुख्यमंत्री बन कर सत्ता का स्वाद चख पाए. भाजपा को भी बिहार में सत्ता का सुख नीतीश के कारण ही मिला है। दो बार नीतीश ने साथ चोड़ा तो भाजपा सत्ता से हाशिए पर चली गई।
आरजेडी के उदीयमान नक्षत्र तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) को अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है। इसीलिए वे अपने पिता लालू यादव (Lalu Yadav) के नीतीश को दिए ऑफर से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। हालांकि दो मौकों पर नीतीश कुमार से टकरा कर तेजस्वी जान चुके हैं कि अकेले नीतीश से पार पाना आसान नहीं है। वर्ष 2020 में विधानसभा चुनाव लड़ कर और 2024 में विधानसभा के फ्लोर पर तेजस्वी ने नीतीश को चुनौती देने की पूरी कोशिश की। दोनों ही बार उन्हें मात खानी पड़ी. विधानसभा चुनाव में वे 12-14 सीटों के अंतर से पिछड़ गए तो फ्लोर टेस्ट में भी पिटस गए। अवध बिहारी चौधरी के मुद्दे पर मतविभाजन से पहले ही तेजस्वी के विधायकों में नीतीश ने सेंध लगा दी। सेंध लगाने की कोशिश तो तेजस्वी और लालू ने भी की थी, लेकिन दांव उल्टा पड़ गया। चेतन आनंद (Chetan Anand) और नीलम देवी को नीतीश ने आरजेडी से तोड़ कर न सिर्फ अपनी सरकार बचा ली, बल्कि वोटों का नया जातीय समीकरण भी बना लिया।
नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू (JDU) विधानसभा में 43 विधायकों वाली तीसरे नंबर की पार्टी है। नीतीश को समर्थन दे रही भाजपा के पास अभी 80 विधायक हैं। इसके बावजूद भाजपा को नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। आरजेडी भी विधानसभा में नीतीश से ज्यादा विधायकों वाली पार्टी है। उसे भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने पर ही 17 महीने तक सत्ता में रहने का अवसर मिला। इसलिए दोनों दलों को यह अच्छी तरह पता है कि राजनीति में नीतीश कुमार की जब तक सक्रियता बनी रहेगी, तब तक उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मजबूरी है। 43 विधायक तो उनके तब बने थे, जब चिराग पासवान (Chirag Paswan) की लोजपा (LJP) ने उनके तीन दर्जन उम्मीदवारों को हराने के लिए वोट काटने के उपाय कर दिए थे। इस हाल में भी जब भाजपा और आरजेडी नीतीश को कबूल करने को मजबूर हुए तो आगे का अनुमान लगाया जा सकता है।
नीतीश कुमार को भी इस स्थिति का एहसास है। इसलिए वे किसी के साथ सरकार चलाएं, पर काम अपने ही अंदाज और मन के मुताबिक करते हैं। जब भी उन्हें किसी के दबाव का एहसास होता है, वे खेमा बदल लेते हैं। 2017 में आरजेडी का दबाव बढ़ने पर ही उन्होंने उससे अलग होना पसंद किया। 2022 में भाजपा का साथ छोड़ा तो इसके पीछे भाजपा के नेताओं का दबाव ही था। भाजपा नेता तब बार-बार उन्हें यह एहसास कराते थे कि वे उनकी अनुकंपा पर सीएम बने हैं। आरजेडी संग जाकर नीतीश ने भाजपा को भी समझा दिया कि उनके बिना उसकी क्या स्थिति हो सकती है।