एंटरटेनमेंट डेस्क | देसी खबर मीडिया : वक़्त की रफ़्तार बहुत कुछ पीछे छोड़ जाती है — कुछ नाम, कुछ चेहरे और कुछ आवाज़ें। कभी-कभी कोई आवाज़ सिर्फ़ सुर नहीं होती, वो एक पूरी पीढ़ी का भाव बन जाती है। 2000 के दशक के मध्य में ऐसा ही एक नाम था — हिमेश रेशमिया।
यह वो दौर था जब म्यूज़िक रियलिटी शोज़ घर-घर में देखे जाते थे और ‘सा रे गा मा पा’ जैसे कार्यक्रमों में जज की कुर्सी पर बैठे हिमेश की मौजूदगी, पूरे शो का मिज़ाज तय कर देती थी। टोपी में ढके सिर, आंखों में तल्ख़ी, और हर प्रतिभागी पर तीखा रवैया — वह अक्सर ओवरएक्टिंग और झगड़ालू तेवरों के लिए आलोचना के घेरे में रहते, पर शायद यही अलग अंदाज़ उन्हें बाक़ी जजों से अलग करता था।
उसी दौर में एक लड़की – एक स्कूली छात्रा – उनकी आवाज़ की दीवानी हो गई। हिमेश के गीतों ने उसकी दुनिया में एक नई धुन भर दी थी। ‘आप का सुरूर’ एल्बम ने जैसे उसका साउंडट्रैक तय कर दिया था। वह गीतों को रिपीट मोड पर सुनती थी, पोस्टर इकट्ठा करती थी, इंटरव्यू देखती थी, और यहां तक कि एक मीट-एंड-ग्रीट प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया – अपने पॉकेट मनी का हर रुपया उसमें झोंककर।
हिमेश तब सिर्फ़ एक संगीतकार नहीं थे, एक ब्रांड बन चुके थे। वो पहले भारतीय कलाकार थे जिन्होंने वेम्बली स्टेडियम में परफॉर्म किया। उनके गीतों में एक कैचिनेस थी – कुछ ऐसा जो आलोचना के बावजूद उन्हें जनता से जोड़ता था। मगर हर चमक की एक उम्र होती है।
हिमेश का सितारा धीरे-धीरे मद्धम होने लगा। अभिनय की ओर रुख़ करने की उनकी कोशिशें दर्शकों से जुड़ नहीं पाईं। रियलिटी शोज़ की ‘ओवरड्रामैटिक’ शैली को फ़िल्मी परदे पर लाने की कोशिशें नाकाम रहीं। ‘बैडएस रवि कुमार’ जैसी फ़िल्मों में वे खुद ही संगीतकार, गायक, अभिनेता, लेखक – सब कुछ बन गए, लेकिन शायद यही आत्ममुग्धता उनकी सबसे बड़ी चूक बन गई।
जिस युवती ने कभी उनका फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो देखा था, जिसने उनकी सीडी खरीदी, पोस्टर लगाये, वही अब कहती है — “अब मैं उतनी बड़ी फ़ैन नहीं रही।” पर यह सिर्फ़ एक प्रशंसक का मोहभंग नहीं है, यह एक पीढ़ी के उस भावनात्मक जुड़ाव का अंत है, जिसने हिमेश को रॉकस्टार बनाया था।
वो कहती हैं, “मैं एक बार उनसे मिलना चाहती थी। और जब आखिरकार मुलाक़ात का क्षण आया — पत्रिका के दफ़्तर के बाहर, जहां वो अपनी फ़िल्म प्रमोट करने आए थे — तो तस्वीर नहीं खिंची, पर उनकी एक झलक मिल गई।”
वो लम्हा अनमोल रहा, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि उस व्यक्ति की आभा अब फीकी पड़ चुकी थी।
सवाल यह नहीं है कि हिमेश रेशमिया कहाँ चूके, सवाल यह है कि क्या कोई कलाकार अपने सबसे चमकदार दौर के बाद खुद से ईमानदारी रख पाता है? क्या वह यह स्वीकार कर पाता है कि वक्त बदल गया है, और उसे भी अपने शिल्प में बदलाव लाने की ज़रूरत है?
हिमेश का गायन अब भी उसी एक पिच में अटका है, वही शैली, वही प्रस्तुति — मगर समय उस ज़माने से आगे बढ़ चुका है। आज के दर्शकों को सिर्फ़ सुर नहीं चाहिए, उन्हें गहराई, प्रयोग और आत्म-सजगता चाहिए।
एक समय था जब लोग पूछते थे, “साहित्य पढ़ने वाली लड़की को हिमेश कैसे पसंद आ सकता है?” और वो लड़की जवाब देती थी — “क्योंकि हिमेश का संगीत अलग था, और वो उस दौर का दस्तावेज़ था।”
पर आज वो ही लड़की मानती है — “हिमेश का खो जाना, सिर्फ़ एक कलाकार का गुम हो जाना नहीं है, बल्कि एक प्रशंसक के भीतर के विश्वास का टूट जाना भी है।”
हमें याद दिलाना ज़रूरी है – सफलता को पाना एक कला है, पर उसे संभालना – सबसे बड़ी चुनौती। हिमेश इस चुनौती से जूझे और शायद हार गए।
अब वो सिर्फ़ अपने पुराने गीतों की वजह से याद किए जाते हैं – वो गीत जो हमें उस मासूम, नादान और खालिस फ़ैसलों वाले समय में वापस ले जाते हैं, जब टीवी चैनलों पर गाने आने का इंतज़ार एक त्यौहार-सा लगता था।
और शायद, हर कलाकार के हिस्से एक ऐसा दौर आता है, जब वह अपने प्रशंसकों की यादों में तो बचा रह जाता है, पर अपने वर्तमान से कटने लगता है। हिमेश रेशमिया अब उसी मोड़ पर खड़े हैं।
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