मां बनना न केवल एक महिला के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक होता है, बल्कि यह ईश्वर की ओर से उसे मिला एक अनमोल और पवित्र उपहार भी होता है। मां बनने की इस यात्रा के साथ जहां एक नया जीवन जुड़ता है, वहीं स्त्री के शरीर, मन और दिनचर्या में भी कई महत्वपूर्ण बदलाव आते हैं। त्वचा पर असर दिखाई देता है, हार्मोनल उतार-चढ़ाव होते हैं, और सबसे बड़ी बात — नींद जैसी बुनियादी ज़रूरत भी एक चुनौती बन जाती है। मातृत्व की इस नई जिम्मेदारी के साथ, हर महिला को अपने रूटीन, प्राथमिकताओं और आराम को पीछे छोड़ना पड़ता है।
एक नवजात शिशु की देखभाल में मां को रात-रात भर जागना पड़ता है। बच्चे को उठाना, उसे दूध पिलाना, उसका डाइपर बदलना और हर छोटी बात को लेकर खुद से सवाल करना कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही — यह सब थकावट के साथ मानसिक तनाव भी देता है। यह स्थिति कई बार पोस्टपार्टम डिप्रेशन या प्रसवोत्तर अवसाद का रूप ले लेती है, जिसमें महिला खुद को चिड़चिड़ी, थकी हुई और भावनात्मक रूप से अस्थिर महसूस करती है।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, यह मानसिक स्थिति हर सात में से एक महिला को प्रभावित करती है और यह गर्भावस्था के दौरान या प्रसव के बाद के पहले वर्ष में देखी जा सकती है। हार्मोनल असंतुलन, पारिवारिक प्रवृत्ति और पर्यावरणीय बदलाव इसकी मुख्य वजहें हैं।
दूसरी ओर, आयुर्वेद भी इस मुद्दे को गंभीरता से देखता है। इसके अनुसार, प्रसव के बाद के पहले 42 दिन — जिसे सूतिका काल कहा जाता है — मां के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। इस समय में मां का शरीर अत्यधिक कमजोर होता है और उसे विशेष देखभाल की ज़रूरत होती है, ताकि वह शारीरिक ऊर्जा फिर से प्राप्त कर सके और उसका हार्मोन संतुलन सामान्य हो सके। आयुर्वेद मानता है कि प्रसव के बाद वात दोष बढ़ जाता है, जिससे थकान, पाचन समस्या, शरीर दर्द और मानसिक अस्थिरता होती है। इस दौरान पर्याप्त नींद और पोषण देना मां के लिए बेहद जरूरी होता है।
हमारी परंपराओं में दादी-नानी हमेशा से इस समय विशेष देखभाल की बात करती रही हैं — चाहे वह पौष्टिक खाना हो, तेल मालिश हो या आराम करने का आग्रह।
इसी बात की पुष्टि आधुनिक चिकित्सा पद्धति भी करती है। दिल्ली के एक प्रमुख अस्पताल में ऑब्स्टेट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजी की वरिष्ठ सलाहकार डॉ. मंजूषा गोयल कहती हैं कि प्रसव के बाद नींद की कमी कोई मामूली बात नहीं होती। नींद न पूरी होने से सिर्फ थकान ही नहीं बढ़ती, बल्कि यह मस्तिष्क और शरीर के संपूर्ण कार्यों पर असर डालती है। मां को चिड़चिड़ापन, मानसिक बेचैनी, और निर्णय लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। समय के साथ यह स्थिति इम्यून सिस्टम, मेटाबॉलिज़्म और दिल की सेहत तक को प्रभावित कर सकती है।
डॉ. गोयल का सुझाव है कि नई माताओं को हर संभव मौका मिलने पर थोड़ा-थोड़ा आराम जरूर करना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि आराम के लिए लंबी नींद ही हो, छोटे-छोटे ब्रेक और मानसिक विश्रांति भी उन्हें बहुत राहत दे सकती है।
निष्कर्षतः, मां बनना जितना खूबसूरत अनुभव है, उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है। एक नई जिंदगी को आकार देने वाली मां को समाज, परिवार और चिकित्सा जगत — तीनों से सहयोग और समझ की आवश्यकता होती है, ताकि वह इस नई जिम्मेदारी को पूरे विश्वास और आत्मबल से निभा सके।
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