वाराणसी/उत्तर प्रदेश, 7 अगस्त 2025, गुरुवार : संगीतनगरी काशी की तंग गलियों और गंगा किनारे की अलस दोपहरों ने अनेक सुरों को जन्म दिया है, लेकिन उन्हीं सुरों में एक नाम ऐसा भी है, जो आज भी ठुमरी की आत्मा बनकर जीवित है—सिद्धेश्वरी देवी।
8 अगस्त 1908 को वाराणसी के कबीरचौरा में जन्मी सिद्धेश्वरी देवी ने अपने स्वर, भाव और ठहराव से ठुमरी को वो सम्मान दिलाया, जिसकी कल्पना उस दौर में कोई नहीं कर सकता था। उन्हें स्नेहपूर्वक ‘मां’ कहा जाता था, और खयाल, दादरा, टप्पा, कजरी, चैती, होरी, भजन जैसे तमाम गायन शैलियों में उनकी पकड़ अविस्मरणीय थी।
सिद्धेश्वरी देवी का जन्म एक संगीतपरंपरा से जुड़े परिवार में हुआ। उनकी मौसी राजेश्वरी देवी, जो स्वयं बनारस घराने की जानी-मानी ठुमरी गायिका थीं, ने उन्हें संगीत की बारीकियां सिखाईं। इसके बाद वे पंडित सिया जी मिश्र, बड़े रामदास जी, उस्ताद रज्जब अली खां और इनायत खां जैसे दिग्गजों की शिष्य बनीं। उनकी गायकी में बनारस घराने की विशेष शैली—बोल-बनाव, भावप्रधानता, और रचनात्मक ठहराव—मुखर रूप से दिखाई देती थी।
उनकी गायकी केवल सुरों तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह श्रोता के हृदय तक पहुंचती थी। ‘सांझ भई घर आओ नंदलाला’ जैसी ठुमरियों में जब वह विरह का भाव पिरोती थीं, तो श्रोता अपनी संवेदना थाम नहीं पाते थे। एक बार मंच पर इसी बंदिश को सुनकर एक श्रोता रोते हुए उठ खड़ी हुई और बोली, "मुझे अपने बेटे की बहुत याद आ रही है, घर जाना है।" सिद्धेश्वरी ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "आपने मेरी गायकी को सार्थक कर दिया। जाइए, अपने लाल से मिलिए।"
बनारसीपन उनकी शैली में भी झलकता था। एक बार ओरछा के राजदरबार में गायन के दौरान कुछ लोगों की बातों से खलल पड़ा तो उन्होंने गायन रोक दिया और डपटते हुए बोलीं, "संगीत सुनने की तमीज़ नहीं है तो बाहर जाओ!" उनका यह रुख और तेज-तर्रार व्यक्तित्व भी बनारस की ही देन था।
सिद्धेश्वरी देवी ने ठुमरी को उस दौर में ऊंचाई दी, जब इस शैली से जुड़ी गायिकाओं को सामाजिक उपेक्षा झेलनी पड़ती थी। लेकिन उन्होंने अपनी साधना और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ठुमरी को जन-जन तक पहुंचाया। वह कहती थीं, "संगीत मेरे लिए पूजा है। जब गाती हूं, तो लगता है गंगा मैया और कान्हा मेरे सामने हैं।"
उनकी बेटी सविता देवी, स्वयं एक प्रसिद्ध ठुमरी गायिका, ने उनकी जीवनी 'मां... सिद्धेश्वरी' में उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को संजोया है। इस पुस्तक में सिद्धेश्वरी देवी के संघर्षों से लेकर उनके बनारसी अंदाज और आध्यात्मिक संगीत दृष्टिकोण का जीवंत चित्रण है।
उनके योगदानों को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजा। उनकी स्मृति को आगे बढ़ाने हेतु ‘सिद्धेश्वरी देवी एकेडमी ऑफ इंडियन म्यूजिक’ की स्थापना की गई, जो आज भी शास्त्रीय संगीत प्रेमियों के लिए एक प्रेरणास्रोत है।
18 मार्च 1977 को उन्होंने आखिरी बार ‘राम-राम’ कहा और संगीत जगत की एक अमर आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई। परंतु उनका संगीत आज भी बनारस के घाटों पर, होली की रंगों में, और ठुमरी की हर बंदिश में जीवंत है।
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