किशनगंज का रण : मुस्लिम बहुल सीट पर क्या कांग्रेस बचाएगी अपना किला या भाजपा करेगी उलटफेर?

पटना/बिहार, 7 अगस्त 2025, गुरुवार : बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच सीमांचल की सबसे संवेदनशील और रणनीतिक सीट किशनगंज एक बार फिर सुर्खियों में है। मुस्लिम बहुल इस विधानसभा क्षेत्र में इस बार मुकाबला त्रिकोणीय नहीं, बल्कि चतुष्कोणीय होने की संभावना है। कांग्रेस जहां अपनी परंपरागत पकड़ को कायम रखने के लिए मैदान में उतरेगी, वहीं भाजपा ऐतिहासिक रूप से पहली बार इस सीट पर जीत दर्ज करने की तैयारी में जुटी है। साथ ही एआईएमआईएम और राजद जैसे दल भी समीकरण बिगाड़ने की ताक में हैं।

इतिहास और पहचान : राजनीति से अधिक एक विरासत
किशनगंज केवल एक विधानसभा सीट नहीं, बल्कि सीमांचल की राजनीति का केंद्र है। ऐतिहासिक रूप से यह इलाका नवाब मोहम्मद फकीरुद्दीन और ‘आलमगंज’ से जुड़ा रहा, जिसे बाद में 'कृष्णा-कुंज' और फिर 'किशनगंज' नाम मिला। यह जिला 14 जनवरी 1990 को पूर्णिया से अलग होकर अस्तित्व में आया। वर्तमान में यह 1,884 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है और नेपाल तथा पश्चिम बंगाल से सटा हुआ है। इसे पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार भी माना जाता है।

भौगोलिक विशेषता और रणनीतिक महत्व
पूर्वी हिमालय की तलहटी में स्थित किशनगंज नदियों, पहाड़ियों और चाय बागानों से समृद्ध है। बिहार का यही एकमात्र जिला है जहां व्यावसायिक चाय उत्पादन होता है। रेल और सड़क नेटवर्क की दृष्टि से यह एक अहम केंद्र है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, पटना और गुवाहाटी जैसे शहरों से किशनगंज का सीधा संपर्क है, जो इसे रणनीतिक दृष्टि से और महत्वपूर्ण बना देता है।

जनसंख्या और मतदाता समीकरण
2011 की जनगणना के अनुसार जिले की आबादी लगभग 17 लाख है, जिसमें मुस्लिमों की संख्या बहुसंख्यक है। 57 प्रतिशत से अधिक साक्षरता दर और प्रति वर्ग किलोमीटर 897 की जनसंख्या घनत्व इसे बिहार के सामाजिक विविधता का परिचायक बनाता है। विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम वोट निर्णायक हैं। अब तक 19 चुनावों में 17 बार मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है। 1967 के बाद से कोई भी हिंदू उम्मीदवार यहां से जीत नहीं पाया है।

राजनीतिक समीकरण : इतिहास बनाम संभावना
कांग्रेस ने किशनगंज सीट पर अब तक 10 बार जीत दर्ज की है, जबकि राजद को 3 बार सफलता मिली है। जनता दल, लोकदल, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और एआईएमआईएम एक-एक बार जीत चुके हैं। भाजपा हालांकि अब तक इस सीट पर कभी नहीं जीत पाई, लेकिन 2010 और 2020 में बहुत कम अंतर से मुकाबला हार चुकी है। 2020 के चुनाव में कांग्रेस के इजहारुल हुसैन ने जीत हासिल की थी, लेकिन एआईएमआईएम की भागीदारी ने मुस्लिम वोटों को बंटवारे की ओर धकेला, जिससे मुकाबला त्रिकोणीय बन गया।

2025 की लड़ाई : कौन किस पर भारी?
2025 में मुकाबला और दिलचस्प हो सकता है। अगर एआईएमआईएम एक बार फिर मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने में सफल होती है और भाजपा हिंदू वोटों को एकजुट करने में कामयाब रही, तो पहली बार इतिहास रचा जा सकता है। किशनगंज में भाजपा की जीत न केवल एक सीट की बात होगी, बल्कि सीमांचल में उसका राजनीतिक आधार मजबूत करने का संकेत भी बन सकती है।

चुनावी रणभूमि तैयार, फैसला जनता के हाथ
किशनगंज की सियासी बिसात बिछ चुकी है। क्या कांग्रेस अपनी गढ़ बचा पाएगी? क्या एआईएमआईएम की दस्तक फिर समीकरण बिगाड़ेगी? या फिर भाजपा पहली बार इतिहास रचकर यहां भगवा लहराएगी? इन सभी सवालों के जवाब अगले कुछ महीनों में मतदाताओं की उंगलियों से निकलेंगे।
और नया पुराने