लेखक : ज्ञानेश साहू
प्रकाशक : युवा हिंदी (प्रभात प्रकाशन)
प्रथम संस्करण : 2024
समीक्षक : साहित्ययात्री (राज बैरवा)
निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर है कि :
"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं"
दो पंक्तियों में अगर ज्ञानेश साहू जी के उपन्यास "अफ़लातून " की कहानी के बारे में कहना हो तो यहीं शेर मुझे उपन्यास का लब्बोलुआब लगता है। अनुराग, सुची, अभय, ज़ोया, आयुषी, जाह्नवी मैम, और अन्य किरदारों से सजी इस कहानी में वो सब कुछ मिलेगा प्यार, धोखा, अल्हड़पन, दोस्ती, उम्मीद, सपने और क़िस्मत।
अनुराग इस कहानी का मुख्य किरदार है जिसके बारे में और जिसकी कहानी इस उपन्यास का सबसे बड़ा हिस्सा है , अनुराग डायरी लिखा करता था और उसका बेटा पार्थ उसकी इसी डायरी को पढ़ने के बाद अपने पिता की ज़िंदगी के बहुत से पहलुओं को समझने का प्रयास करता है और आख़िर तक उन्हें हीरो भी मानने लगता है। अनुराग की कहानी के हर हिस्से से आप कुछ ना कुछ रिलेट तो कर ही जाएंगे ये मेरा यक़ीन है इस उपन्यास को लेकर जो अच्छी बात है इस उपन्यास की। अनुराग के साथ साथ आगे बढ़ते हुए इस कहानी में आपकों फिर चाहें वो मल्टी लेवल नेटवर्क मार्केटिंग वाली घटना हो, या प्यार में धोखा हो, या फिर अंजान लोगों का सबसे करीबी दोस्त बन जाना हो या फिर ज़िंदगी के दिए ऑप्शन (हालातों) के हाथों नए मोड पर मुड़ जाना हो, ये सब कुछ आपको महसूस करने को मिलेगा।
कहानी को जिस तरह से बुना गया है उसमें कहानी कहीं धीमी नहीं पड़ती है हर पन्ने के बाद कुछ न कुछ घटता रहता है कहानी में किरदारों के साथ जो पाठकों को रुचि कहानी में बनाए रखने में सफल भी होता है। कहानी में अलग अलग हिस्सों में कुछ ट्विस्ट भी डाले गए है जो आम पाठकों के लिए असरदार लगते है। किरदारों की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि अनुराग का किरदार बाक़ी सभी किरदारों से ज्यादा अच्छे से निखर कर सामने आता है अच्छे बुरे दोनों पक्ष के साथ आप उस कहीं प्रेरित भी होते है तो कहीं कहीं सहानुभूति भी रखते है। अनुराग के अलावा अन्य किरदारों की कहानी को ज्यादा विस्तार नहीं दिया गया है सिवाय जाह्नवी मैम और आयुषी के किरदार के, लेखन की बात करें तो भाषा सरल है और संवादों को भी काफ़ी हद तक सहज ही रखा गया है।
कहानी जिस तरह ख़त्म होती है उसके अंत में एक अच्छा ट्विस्ट डाला गया है जो आप भी कहीं ना कहीं सोचने भी लगते है। ऐसा नहीं है कि ये उपन्यास बिल्कुल परफेक्ट है कुछ कमियां जरूर लगी मुझे इसमें उनमें सबसे पहले है उसका ट्रीटमेंट, लेखक बहुत सी जगह गंभीर होना चाहता है मगर कुछ पन्नों बाद वो गंभीरता गायब सी लगती है किरदारों के एक्शन से, और दूसरा है किरदारों के भीतर चलने वाली दुविधाओं को और उनके अंदर मन की उलझनों को और समय ना देना उसे और ज्यादा विस्तार से ना कहना , कहानी में ठहराव को कम तो करता ही है ये मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है।
गुगली के बाद ये ज्ञानेश साहू जी का दूसरा उपन्यास है और गुगली से यक़ीनन लेखन और कहानी की बुनावट दोनों में सुधार देखने को मिलता है। मैं जोया के किरदार की कहानी को और ज्यादा जानना चाहता था उम्मीद है ज्ञानेश कि इसे किसी नई किताब या इसके सीक्वल में जगह दे, क्योंकि किताब जहां ख़त्म हुई उसमें आगे की उम्मीद बनती है देखते है आगे भविष्य में कुछ ऐसा होता है भी या नहीं। खैर,अगर आप भी अफ़लातून की कहानी जानना चाहते हैं तो अभी इसे ऑर्डर कर लीजिए पढ़ते हुए मज़ा तो आएगा।
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Literature